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Title: History of Hindi
Description: History of Hindi language

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​    The History of  Hindi 
विश्व की प्राचीनतम संस्कृ तियों में
भारतीय संस्कृ ति मानी जाती है। इसकी
प्राचीनता का एक प्रमाण यहां की भाषाएं
भी है। भाषाओं की दृष्टि से कालखंड का
विभाजन निम्नानुसार किया जाता है -

वैदिक संस्कृ त

लौकिक संस्कृ त

पाली

प्राकृ त

अपभ्रंश तथा अव्ह्त्त

हिंदी का आदिकाल

हिंदी का मध्यकाल

हिंदी का आधुनिक काल


हिंदी शब्द की उत्पति 'सिन्धु' से जुडी है।
'सिन्धु' 'सिंध' नदी को कहते है। सिन्धु नदी के
आस-पास का क्षेत्र सिन्धु प्रदेश कहलाता है।
संस्कृ त शब्द 'सिन्धु' ईरानियों के सम्पर्क में
आकर हिन्दू या हिंद हो गया। ईरानियों द्वारा
उच्चारित किया गए इस हिंद शब्द में ईरानी
भाषा का 'एक' प्रत्यय लगने से 'हिन्दीक'
शब्द बना है जिसका अर्थ है 'हिंद का'।
यूनानी शब्द 'इंडिका' या अंग्रेजी शब्द 'इंडिया'
इसी 'हिन्दीक' के ही विकसित रूप है।

हिंदी का साहित्य 1000 ईसवी से प्राप्त होता
है। इससे पूर्व प्राप्त साहित्य अपभ्रंश में है इसे
हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है।
आधुनिक भाषाओं का जन्म अपभ्रंश के
विभिन्न रूपों से इस प्रकार हुआ है :

अपभ्रंश - आधुनिक भाषाएं


शौरसेनी - पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी ,
गुजराती

पैशाची - लहंदा, पंजाबी

ब्राचड - सिंधी

महाराष्ट्री - मराठी

मगधी - बिहारी, बंगला, उड़‍िया, असमिया

पश्चिमी हिंदी - खड़ी बोली या कौरवी, ब्रिज,
हरियाणवी, बुन्देल, कन्नौजी

पूर्वी हिंदी - अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी

राजस्थानी - पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी)
पूर्वी राजस्थानी

पहाड़ी - पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी
(कु माऊं नी-गढ़वाली)

बिहारी - भोजपुरी, मागधी, मैथिली


आदिकाल - (1000-1500)
अपने प्रारंभिक दौर में हिंदी सभी बातों में
अपभ्रंश के बहुत निकट थी इसी अपभ्रंश से
हिंदी का जन्म हुआ है। आदि अपभ्रंश में अ,
आ, ई, उ, उ ऊ, ऐ, औ के वल यही आठ स्वर
थे।ऋ ई, औ, स्वर इसी अवधि में हिंदी में जुड़े
। प्रारंभिक, 1000 से 1100 ईसवी के आसपास तक हिंदी अपभ्रंश के समीप ही थी।
इसका व्याकरण भी अपभ्रंश के सामान काम
कर रहा था। धीरे-धीरे परिवर्तन होते हुए और
1500 ईसवी आते-आते हिंदी स्वतंत्र रूप से
खड़ी हुई। 1460 के आस-पास देश भाषा में
साहित्य सर्जन प्रारंभ हो चुका हो चुका था।
इस अवधि में दोहा, चौपाई ,छप्पय दोहा,
गाथा आदि छंदों में रचनाएं हुई है। इस समय
के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति,
नरपति नालह, चंदवरदाई, कबीर आदि है।


मध्यकाल -(1500-1800 तक)
इस अवधि में हिंदी में बहुत परिवर्तन हुए।
देश पर मुगलों का शासन होने के कारन
उनकी भाषा का प्रभाव हिंदी पर पड़ा।
परिणाम यह हुआ की फारसी के लगभग
3500 शब्द, अरबी के 2500 शब्द, पश्तों से
50 शब्द, तुर्की के 125 शब्द हिंदी की
शब्दावली में शामिल हो गए। यूरोप के साथ
व्यापार आदि से संपर्क बढ़ रहा था। परिणाम
स्वरूप पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी
के शब्दों का समावेश हिंदी में हुआ। मुगलों
के आधिपत्य का प्रभाव भाषा पर दिखाई

पड़ने लगा था। मुगल दरबार में फारसी पढ़ेलिखे विद्वानों को नौकरियां मिली थी
परिणामस्वरूप पढ़े-लिखे लोग हिंदी की
वाक्य रचना फारसी की तरह करने लगे। इस
अवधि तक आते-आते अपभ्रंश का पूरा
प्रभाव हिंदी से समाप्त हो गया जो आंशिक
रूप में जहां कहीं शेष था वह भी हिंदी की
प्रकृ ति के अनुसार ढलकर हिंदी का हिस्सा
बन रहा था।

इस अवधि में हिंदी के स्वर्णिम साहित्य का
सृजन हुआ। भक्ति आंदोलन ने देश की
जनता की मनोभावना को प्रभावित किया।
भक्ति कवियों में अनेक विद्वान थे जो तत्सम
मुक्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे। राम और
कृ ष्ण जन्म स्थान की ब्रज भाषा में काव्य
रचना की गई, जो इस काल के साहित्य की
मुख्यधारा मानी जाती हैं। इसी अवधि में
दखिनी हिंदी का रूप सामने आया। पिंगल,

मैथिली और खड़ीबोली में भी रचनाएं लिखी जा रही थी। इस
काल के मुख्य कवियों में महाकवि तुलसीदास, संत सूरदास, संत मीराबाई,
मलिक मोहम्मद जायसी, बिहारी, भूषण हैं। इसी कालखंड में रचा गया




'रामचरितमानस' जैसा ग्रन्थ विश्व में विख्यात हुआ।

हिंदी में क, ख, ग, ज, फ, ये पांच नई ध्वनियां,
जिनके उच्चारण प्रायः फारसी पढ़े-लिखे लोग
ही करते थे। इस काल के भक्त निर्गुण और
सगुन उपासक थे। कवियों को रामाश्रयी और
कृ ष्णाश्रयी शाखाओं में बांटा गया। इसी
अवधि में रीतिकालीन काव्य भी लिखा गया।


आधुनिक काल (1800 से अब तक )
हिंदी का आधुनिक काल देश में हुए अनेक
परिवर्तनों का साक्षी है। परतंत्र में रहते हुए
देशवासी इसके विरुद्ध खड़े होने का प्रयास

कर रहे थे। अंग्रेजी का प्रभाव देश की भाषा
और संस्कृ ति पर दिखाई पड़ने लगा। अंग्रेजी
शब्दों का प्रचलन हिंदी के साथ बढ़ने लगा।
मुगलकालीन व्यवस्था समाप्त होने से अरबी,
फारसी के शब्दों के प्रचलन में गिरावट आई।
फारसी से स्वीकार क, ख, ग, ज, फ ध्वनियों
का प्रचलन हिंदी में समाप्त हुआ।
अपवादस्वरूप कहीं-कहीं ज और फ ध्वनि
शेष बची। क, ख, ग ध्वनियां क, ख, ग में
बदल गई। इस पूरे कालखंड को 1800 से
1850 तक और फिर 1850 से 1900 तक
तथा 1900 का 1910 तक और 1950 से
2000 तक विभाजित किया जा सकता है।

संवत 1830 में जन्मे मुंशी सदासुख लाल
नियाज ने हिंदी खड़ी बोली को प्रयोग में
लिया। खड़ी बोली उस समय भी अस्तित्व में
थी। खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव
शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है।

इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग,
सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरुत , दिल्ली
बिजनौर ,रामपुर ,मुरादाबाद है। इस बोली में
पर्याप्त लोक गीत और लोक कथाएं मौजूद
हैं। खड़ी बोली पर ही उर्दू, हिन्दुस्तानी और
दक्खनी हिंदी निर्भर करती है। मुंशी सदा
सुखलाल नियाज के आलावा इंशा अल्लाह
खान इसी अवधि के लेखक है। इनकी रानी
के तकी की कहानी पुस्तक प्रसिद्ध है।
लल्लूलाल, इस काल खंड के एक और
प्रसिद्ध लेखक हैं। इनका जन्म संवत 1820
में हुआ था कोलकाता के फोर्ट विलियम
कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्रिस्ट के
अनुरोध पर लल्लूलाल जी ने पुस्तक 'प्रेम
सागर' खड़ी बोली में लिखी थी।

प्रेम सागर के आलावा सिंहासन बत्तीसी,
बेताल पचीसी, शकुं तला नाटक भी इनकी
पुस्तकें हैं जो खड़ी बोली में, ब्रज और उर्दू के

मिश्रित रूप में हैं। इसी कालखंड के एक
और लेखक सदल मिश्र हैं। इनकी
नचिके तोपाख्यान पुस्तक प्रसिद्ध है। सदल
मिश्र ने अरबी और फारसी के शब्दों का
प्रयोग न के बराबर किया है। खड़ी बोली में
लिखी गई इस पुस्तक में संस्कृ त के शब्द
अधिक हैं। संवत 1860 से 1914 के बीच के
समय में कालजयी कृ तियां प्राय: नहीं
मिलती। 1860 के आसपास तक हिंदी गद्य
प्राय: अपना निश्चित स्वरुप ग्रहण कर चुका
था।

इसका लाभ लेने के लिए अंग्रेजी पादरियों ने
ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बाईबल
का अनुवाद खड़ी बोली में किया यद्यपि
इनका लक्ष्य अपने धर्म का प्रचार-प्रसार
करना था। तथापि इसका लाभ हिंदी को
मिला देश की साधारण जनता अरबी-फारसी
मिश्रित भाषा में अपने पौराणिक आख्यानों

को कहती और सुनती थी। इन पादरियों ने
भी भाषा के इसी मिश्रित रूप का प्रयोग
किया। अब तक 1857 का पहला स्वतंत्रता
युद्ध लड़ा चुका था अतः अंगरेजी शासकों की
कू टनीति के सहारे हिंदी के माध्यम से
बाइबिल के धर्म उपदेशों का प्रचार-प्रसार
खूब हो रहा था। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी
नवजागरण की नींव रखी। उन्होंने अपनें
नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सागोई
के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान के लिए
खूब काम किया। अपने पत्र 'कविवचनसुधा'
के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया।

गद्य में

सदल मिश्र, सदासुखलाल,लल्लू लाल आदि

लेखकों ने हिंदी खड़ीबोली को स्थापित करने का काम
किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता को ब्रज भाषा से
मुक्त किया उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा।


सन 1866 की अवधि के लेखकों में पंडित
बद्री‍नारायण चौधरी, पंडित प्रताप नारायण मिश्रल
बाबू तोता राम, ठाकु र जगमोहन सिंह, पंडित बाल
कृ ष्ण भट्ट, पंडित के शवदास भट्ट ,पंडित
अम्बिकादत्त व्यास, पंडित राधारमण गोस्वामी
आदि आते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य को
परमार्जित करने के उद्देश्य से इस कालखंड में
अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।
इनमें हरिश्चन्द्रचन्द्रिका, हिन्दी बंगभाषी,
उचितवक्ता, भारत मित्र, सरस्वती, दिनकर प्रकाश
आदि।

1900 वीं सदी का आरंभ हिन्दी भाषा के विकास
की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस समय देश में
स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ था। राष्ट्र में कई
तरह के आंदोलन चल रहे थे। इनमें कु छ गुप्त और
कु छ प्रकट थे पर इनका माध्यम हिंदी ही थी अब
हिंदी के वल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रह
गई थी। हिंदी अब तक पूरे भारतीय आन्दोलन की
भाषा बन चुकी थी। साहित्य की दृष्टि से बांग्ला,

मराठी हिन्दी से आगे थीं परन्तु बोलने वालों
के लिहाज से हिन्दी सबसे आगे थी। इसीलिए
हिन्दी को राजभाषा बनाने की पहल गांधीजी
समेत देश के कई अन्य नेता भी कर रहे थे।
सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की
अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था की
हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। सन
1900 से लेकर 1950 क हिंदी के अनेक
रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया
इनमे मुंशी प्रेमचंद ,जयशंकर प्रसाद,
माखनलाल चतुर्वेदी , मैथिलीशरण गुप्त,
सुभद्राकु मारी चौहान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त,
महादेवी वर्मा आदि।



Title: History of Hindi
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